by Sanjay Vohra | Nov 7, 2022 | Editor's Pick, Religious
छठी पातशाही यानि सिखों के 6ठे गुरु श्री हरगोविंद साहब जिस चिनार के पेड़ के नीचे बैठकर लोगों के साथ विचार चर्चा करते थे, आज वो वृक्ष श्रद्धालुओं के मन की मुराद पूरी करने वाला पवित्र वृक्ष बन गया है. लोग चिनार के इस तकरीबन 500 साल पुराने पेड़ पर रंगीन धागा या कपडे की कतरन बांधते हुए अपनी मनोकामना स्मरण करते हैं. जब वो इच्छा पूरी हो जाती है तो लौटकर आते हैं और उस धागे को खोल ले जाते हैं. यूं तो पूरे कश्मीर में चिनार के पेड़ हैं और कई गुणों वाले इस पेड़ का कश्मीरी संस्कृति में बेहद अहम स्थान है लेकिन यहां जिस पेड़ का ज़िक्र हो रहा है, बेहद ख़ास स्थान पर होने के कारण उसका महत्व और बढ़ जाता है. चिनार का ये वृक्ष कश्मीर के पुलवामा ज़िले में शादीमर्ग गांव में बने गुरूद्वारे में है.
गुरुद्वारा शादीमर्ग
गुरुद्वारा शादीमर्ग
भारत के केंद्र शासित क्षेत्र जम्मू कश्मीर (jammu kashmir) की राजधानी श्रीनगर से तकरीबन 40 किलोमीटर के फासले पर स्थित ये ऐतिहासिक गुरद्वारा है. श्रीनगर के हरि परबत (हरी पर्वत) से बारामुला जाते वक्त गुरू हरगोविंद इसी स्थान पर रुके थे. बादशाह जहांगीर से उनकी दोस्ती थी. दोनों शादीमर्ग के पिछवाड़े जंगल में शिकार के लिए साथ साथ जाया करते थे. यहां के इतिहास की लोकप्रिय कथा के मुताबिक़ एक दिन शिकार के दौरान बादशाह को प्यास लगी लेकिन वहां पानी का कोई स्त्रोत नहीं था. तब गुरु हरगोविंद (guru hargobind sahib) ने शिकार में इस्तेमाल किया जाने वाला बरछा दूर फेंका. जिस स्थान पर बरछा गिरा वहां से जलधारा निकल आई. इस पानी से उन्होंने प्यास बुझाई. ऐसा माना जाता है कि शादीमर्ग गुरद्वारे से कुछ ही फासले पर जंगल में जो कुआं है, ये वही जल स्त्रोत है जहां गुरु का बरछा गिरा था.
वो स्थान जहाँ गुरु जी ने बरछे से पानी निकाला था.
वो स्थान जहाँ गुरु जी ने बरछे से पानी निकाला था.
शादीमर्ग गुरुद्वारे (gurdwara shadimarg ) के निर्माण की पृष्ठभूमि एक और कथा से जुड़ी है. इस ऐतिहासिक घटना का विवरण गुरुद्वारे की दीवार पर लिखा मिलता है. बात 1616 की है. श्री गुरु हरगोबिन्द गोइंदवाल, वजीरबाद और हमीरपुर की यात्रा के दौरान यहां रुके थे. गुरु चिनार के पेड़ के नीचे बैठे थे. श्रद्धालु उनसे आशीष लेने के लिए यहां आते थे. उन्हीं में से कुछ गुरु हरगोबिन्द के लिए मधुमक्खियों का शहद लेकर आ रहे थे, रास्ते में लोगों को स्थानीय संत भाई कुटु शाह ( bhai kutu shah) ने रोका और उनसे कुछ शहद मांगा लेकिन श्रद्धालुओं ने उनको शहद देने से इनकार कर दिया. जब श्रद्धालुओं ने गुरु हरगोबिन्द को शहद से भरा बर्तन भेंट किया तो उसमें ढेर सारी चीटियाँ थीं. तभी गुरु हरगोबिंद ने शहद लाए श्रद्धालुओं से सवाल पूछा – क्या रास्ते में किसी ने उनसे शहद मांगा था? इस पर श्रद्धालुओं ने उनको सारा किस्सा बताया. तब गुरु ने उनसे कहा कि पहले कुटु शाह को शहद देकर आएं तभी वो उनसे बाकी शहद स्वीकार करेंगे. गुरुद्वारे के बारे में दर्ज इसी इतिहास में सिखों के छठे गुरु हर गोबिंद और मुग़ल बादशाह जहांगीर की दोस्ती का वर्णन है.
शादीमर्ग साहिब
शानदार लंगर प्रसाद :
गुरुद्वारे के आसपास शादीमर्ग में सिख समुदाय के तकरीबन 15 परिवार रहते हैं. ये कहते हैं कि वहां इनके पड़दादा या उससे पहले के पूर्वजों की भी पैदाइश हुई है. संभवत: उसी जमाने से जब गुरु हरगोबिन्द यहां आए अथवा जब से सिख परम्परा शुरू हुई. हर रविवार को यहां आसपास और पड़ोसी जिलों अनंतनाग और श्रीनगर से लोग आते हैं. इस दौरान वहां गुरु का लंगर प्रसाद मिलता है जो पूरी तरह शुद्ध शाकाहारी कश्मीरी स्टाइल में खुद श्रद्धालु तैयार करते हैं. चावल, दाल सब्जी के लंगर के साथ यहां ‘नून चा’ ( कश्मीरी नमकीन चाय) का भी लंगर प्रसाद के तौर पर वितरित किया जाता है. अगर आप कश्मीर यात्रा के दौरान धार्मिक स्थानों पर भी जाना चाहते हैं तो प्रकृति की गोद में समाया ये स्थान आपको सच में भायेगा.
लंगर प्रसाद
गुरूद्वारे में ठहरने का इंतज़ाम :
पुलवामा ज़िले की गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी गुरुद्वारा शादीमर्ग साहिब की देखभाल का काम करती है. कमेटी के प्रधान सरदार कुलवंत सिंह बताते हैं कि यहां पर कुछ साल पहले दिल्ली के कार सेवा वाले बाबा हरबंस सिंह के प्रयास से नए भवनों का निर्माण हुआ था. उनके बाद इस काम को उन्हीं के शिष्य बाबा बीरा ने किया. कुलवंत सिंह कहते हैं कि दूर दराज़ से आने वाले श्रद्धालुओं के लिए यहाँ रुकने के लिए सराय की व्यवस्था है. सराय में तकरीबन दो दर्ज़न कमरे हैं. यहां लंगर पानी की भी उचित व्यवस्था है. आतंकवाद के दौर की शुरुआत के बाद गुरुद्वारे के भीतर जम्मू कश्मीर पुलिस और अर्ध सैन्य बल के जवान सुरक्षा व्यवस्था में तैनात रहते हैं. उनके रहने के लिए वहां अलग से एक भवन में इंतजाम किया गया है.
गुरुद्वारा शादीमर्ग
कैसे पहुंचे गुरद्वारा शादीमर्ग :
सिख समुदाय की श्रद्धा का केंद्र गुरुद्वारा शादीमर्ग श्रीनगर से तकरीबन 35 किलोमीटर के फासले पर है. ये पुलवामा जिला मुख्यालय से तकरीबन 10 किलोमीटर के फासले मुख्य सड़क पर मेन रोड पर है. यदि बस से आते हैं तो पुलवामा के मेन बस स्टैंड पर उतरकर कर वहां से ऑटो या टैक्सी लेनी होगी. ये साफ़ सुथरा और अच्छा रास्ता है. अगस्त से नवंबर तक यहां आने पर मौसम शानदार मिलेगा. सडक के दोनों तरफ सेब के वृक्ष हैं जो सितंबर में लाल सेब से लदे मिलेंगे.
by Sanjay Vohra | Jan 22, 2022 | Heritage, Religious
पायर ..! कश्मीर का एक साधारण सा गांव लेकिन इसे असाधारण बनाता है एक शिव मंदिर. तकरीबन 1100 साल पुराने इस छोटे से सुंदर शिव मंदिर का यहां होना इसलिए भी हैरानी पैदा करता है क्योंकि लगभग 300 परिवारों वाले पायर गांव में एक भी हिन्दू परिवार नहीं है. ये पहलू अपने आप में शोध का विषय हो सकता है लेकिन ये शिव मंदिर आस्था के साथ साथ कश्मीर में मध्यकालीन शिल्प और निर्माण कला की खूबसूरत मिसाल है.
कश्मीर के प्राचीन मन्दिरों में से ये शिव मन्दिर पुलवामा ज़िले में ज़िला मुख्यालय से तकरीबन पांच किलोमीटर के फासले पर है. पायर का ये शिव मंदिर एक संरक्षित इमारत भी है जिसे भारतीय पुरातत्व एवं सर्वेक्षण विभाग के अधिकार क्षेत्र में रखा गया है. इसी विभाग के कर्मचारी और पायर गांव के ही बाशिंदे हामिद अंसारी शिव मंदिर की देखभाल करते हैं. सुरक्षा के नज़रिये से आमतौर पर मंदिर के दरवाजे बंद ही रहते हैं क्योंकि किसी का यहां आना जाना नहीं होता. शोध या किसी ख़ास कारण से कोई इक्का दुक्का या भूला भटका ही शायद कोई आता है तब इसे खोला जाता है.
प्राचीन शिव मंदिर
शिव के विभिन्न रूप :
पूर्व दिशा की तरफ मुख्य द्वार वाला तकरीबन 10 फीट लम्बा और इतने ही चौड़े चबूतरे पर ये एक कक्ष वाला मंदिर है जो गहरे सलेटी रंग के पत्थर से बना है. इस चौकोर मंदिर की अलग अलग दिशा वाली दीवार पर भगवान शिव के अलग अलग स्वरूप विद्यमान हैं. मुख्य द्वार आयताकार है जिस तक सीढ़ियाँ चढ़ कर जाया जा सकता है. इसके दरवाज़े पर बिलकुल सामने ही बड़े आकार का शिवलिंग है जो दूसरे रंग के पत्थर का है. बाकी तीनों दीवारों पर भी तकरीबन प्रवेश द्वार जितने बराबर के आकार की खिड़कीनुमा खाली जगह है. इसके ऊपर त्रिभुजाकार में खुदाई करके शिव के विभिन्न स्वरूप या भाव भंगिमा दिखाई देती हैं. एक में उनके 3 सिर हैं जिसमें वे गणों के साथ हैं तो एक में 6 भुजा वाले नटराज के रूप में नृत्य करते.
प्राचीन शिव मंदिर
मंदिर की छत दो हिस्सों में बनी है जिस पर सजावट के लिए विभिन्न आकृतियां उकेरी गई है. छत को सजाने के लिए सबसे ऊपर पत्थर को तराश कर कमल का फूल बनाया गया हैं. समय पर देखभाल न होने या क्षति पहुंचाए जाने के कारण आकृतियां स्पष्ट नहीं हैं लेकिन गौर से देखने पर इन्हें समझा जा सकता है. किसी समय में शानदार रहा ये मंदिर वक्त के साथ साथ नज़रंदाज़ होता रहा. देखभाल की कमी के कारण और इसमें कुछ टूट फूट की वजह से इसने आकर्षण खो दिया था लेकिन 2017 में इसका जीर्णोद्धार किया गया. कुछ सीढ़ियां नई बनाई गई. कहीं कहीं से क्षतिग्रस्त या गायब हुए पत्थर के हिस्से पर नया पत्थर लगाया गया है. अब मंदिर के चारों तरफ से पक्की दीवार है जिस पर लोहे की जाली लगाई गई है. भीतर छोटा सा लॉन विकसित किया गया है.
10 पत्थरों से बना :
मंदिर की बनावट को लेकर इसी गांव के बाशिंदे मोहम्मद मकबूल ने दिलचस्प जानकारी दी. श्री मकबूल 37 साल पुरातत्व विभाग में सेवा देने के बाद गांव में रिटायर्ड जीवन बिता रहे हैं. उनके पूर्वज भी इसी गांव में पैदा हुए. उन्होंने बताया कि पायर का शिव मंदिर बड़े आकार के कुल 10 पत्थरों से निर्मित किया गया है. ये उसी शैली का मंदिर है जैसा कि पास के अवंतिपुर के मंदिर हैं. मोहम्मद मकबूल ने बताया कि इस तरह के निर्माण के दौरान छत के लिए या ऊंचाई पर लगाने के लिए भारी भारी बड़े आकार के पत्थर मिट्टी के ऊंचे ऊंचे रैम्प बनाकर उन पर सरकाकर उचित स्थान पर अवस्थित किये जाते थे. सम्भवतः इस मंदिर के निर्माण में भी यही तकनीक अपनाई गई होगी.
प्राचीन शिव मंदिर
गौर से देखने पर पता चलता है कि पायर के शिव मंदिर की कुछेक जगह पर पत्थर के रंग में फर्क है. इस बारे में मोहम्मद मकबूल ने बताया कि दरअसल ये वो जगह है जहां जहां मरम्मत की गई है या नया पत्थर लगाया गया है जिसका रंग मूल पत्थर से भिन्न है.
असल में पहले ये जगह खाली पड़ी थी. मंदिर में न कोई पूजा करने आता था और न ही किसी ने इसकी अहमियत समझी. यहां बच्चे खेलते रहते थे. किसी को कोई ज़्यादा रोकटोक भी नहीं थी शायद यही वजह थी कि इसकी अनदेखी होती रही. इसी अज्ञानता वश किसी ने शिवलिंग पर निशान भी लगा दिया जिससे शिवलिंग कुछ विकृत भी लगता है. पायर में बने कश्मीर के प्राचीन मंदिर को लोग पांडवों के मंदिरों में से एक कहकर भी प्रचारित करते हैं. नौंवी सदी के इस शिव मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सकता है.
संरक्षित है यह प्राचीन शिव मंदिर
राजधानी श्रीनगर से पायर के शिव मंदिर तक सड़क मार्ग का फ़ासला तकरीबन 35 किलोमीटर है जिसे लगभग एक से सवा घंटे में पूरा किया जा सकता है. पायर का शिव मन्दिर यहां की जामा मस्जिद के पास है और यहां तक पक्की सड़क बनी हुई है. कार या ऐसे किसी भी वाहन से यहां तक आसानी से आप पहुंच सकते हैं. अगर पूजा करते हैं तो इसके लिए सामग्री साथ ले जानी होगी. वहां ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. यदि निजी वाहन नहीं है तो पुलवामा मेन बाज़ार के पास (बस अड्डे के करीब) शहीदी पार्क के सामने से ऑटो टैक्सी से भी जाया जा सकता है जो पायर तक जाते है और 15 रूपये सवारी किराया लेते हैं.
प्राचीन शिव मंदिर
पायर की खासियत और खूबसूरती :
मंदिर ही नहीं पायर में एक प्राचीन ज़ियारत भी है. स्थानीय लोग बताते हैं कि आसपास ही नहीं कभी कभी दूर के गांव से भी लोग आते हैं और मन्नत मांगते हैं. वह यहां पर धागा या कपड़ा बांधकर जाते हैं और मन्नत पूरी होने पर उसे खोलने के लिए आते हैं. ये ज़ियारत मिट्टी के उन पहाड़ों की तलहटी पर बनी है जिन पहाड़ों पर दूर से ही सेब के पेड़ दिखाई देते हैं. जब सेब का सीज़न खत्म होता है तो दिसंबर – जनवरी की बर्फ इन्हें अपने आगोश में लेकर एक अलग खूबसूरती देती है. बर्फबारी के मौसम में इस मंदिर का ही नहीं पूरे गांव का सौन्दर्य बढ़ जाता है. मिट्टी को मुलायम बर्फ की सफेद चादर ढांप लेती है तो आसमान ज़रा सा बादल छंटने पर अलग ही नज़ारा पेश करता है.
बर्फबारी के दौरान का नजारा
सेब का अलावा पायर के पहाड़ के ऊपर बाग़ में अखरोट और बादाम के भी पेड़ हैं जो स्थानीय निवासियों के लिए जीवन यापन का स्रोत भी हैं और कारोबार भी है. पायर के लोग पढ़े लिखे लेकिन खाना पीना बेहद साधारण है. ज़्यादातर मांसाहारी हैं. यहां भैंस नहीं पाली जाती. लोग गाय पालते हैं, उसी का दूध पीते-बेचते है. ज़रूरत के सामान की छोटी मोटी दुकाने हैं.
by Sanjay Vohra | Sep 23, 2021 | Destination, Food, Travel Story
परांठा ..! एक ज़माना था जव ये लफ्ज़ सुनते ही दिल्ली वालों के ज़हन में चांदनी चौक की गली परांठे वाली की तस्वीर आती थी. यहां के खुशबूदार पराठों की याद सताने लगती थी. देसी घी में बने अजब ग़जब लज़ीज़ परांठे आज भी वहां मिलते हैं लेकिन दिल्ली के उन परांठों से ज्यादा चर्चा मुरथल के परांठों की होने लगी है. जी हां, मुरथल…!! भारत की राजधानी नई दिल्ली से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर एक गांव जो दिल्ली-चंडीगढ़ के हाइवे की शुरुआत में ही पड़ता है. हरियाणा के सोनीपत ज़िले का ये मुरथल गांव कभी परांठों की वजह से अपनी पहचान बना लेगा, ये बात उन लोगों ने भी कभी सोची नहीं थी जिन्होंने खुद इसकी शुरुआत की थी. उन परांठों की ही महिमा है कि मुरथल और आसपास के पूरे क्षेत्र की शक्लो सूरत ही बदल गई है. या यूं कहें कि इन पराठों ने यहां ही नहीं पूरे दिल्ली-चंडीगढ़ हाई वे पर ट्रेवलिंग और हॉस्पिटैलिटी (travelling and hospitality) इंडस्ट्री को जन्म दिया और विकसित किया है.
गुलशन ढाबा का रेस्टोरेंट
एक दौर था जब दिल्ली से सुबह सुबह चंड़ीगढ़ की तरफ निकले लोगों के लिए देसी स्टाइल में मिलने वाले ‘सस्ते, स्वाद भरे और झटपट मुहैया होने वाले नाश्ते’ के तौर पर इस परांठे ने पहचान बनाई थी जो साधारण घरेलू चक्की में पिसे गेहूं के आटे से बनता और बिलोये के सफेद मक्खन, दही और अचार के साथ परोसा जाता था. साथ में कांच के धारीदार डिज़ाइन वाले उस गिलास में गाढ़े दूध की चाय भी जिसकी तली का डायामीटर बेहद छोटा सा होता था लेकिन ऊपर का हिस्सा शायद चोगुना. सड़क किनारे ढाबे पर हाथ से बुनी चारपाई और सादा लकड़ी के बेंच कुर्सी पर बैठकर किये जाने वाले परांठे के उस नाश्ते का स्वाद आज भी कायम है लेकिन अब चारपाई और बेंच की जगह शानदार चमकदार फर्नीचर ने ले ली है. अब वहां आसपास के खेत से आती हवा और मिट्टी के तंदूर की आंच में सिकते परांठों की खुशबू नहीं है. अब वहाँ छप्पर वाले या कच्ची पक्की छत वाले उन ढाबों की जगह ले ली है आलीशान और विशाल एयरकंडीशंड रेस्तरां ने. वैसे उनके नाम के आगे ढाबा अभी भी लिखा मिलेगा. शायद इससे कुछ नियमों के झंझट कम होते हैं और साथ ही पुराना नाम, आकर्षण और स्टाइल कायम रखने में मदद मिलती होगी.
मुरथल में ढाबों की शुरुआत :
गुलशन ढाबा की शुरुआत इन्होने ही की थी.
बहरहाल, बात यहाँ के परांठे की की जाए तो ये जितना लोकप्रिय है उतना यहां पर इसका इतिहास कोई ज्यादा पुराना नहीं है. असल में मुरथल में परांठों की पहलों पहल शुरुआत करने वाले यहां 2 – 3 ढाबे ही थे. उन्हीं में से एक है गुलशन ढाबा (gulshan dhaba). अब इसके मालिक गुलशन राय और मनोज नाम के दो भाई हैं लेकिन खाने पीने के इस ठिकाने की शुरुआत हुई थी चाय की एक मामूली सी दुकान के तौर पर. भारत के दुर्भाग्यपूर्ण बंटवारे के कारण अपनी मातृभूमि मुल्तान (वर्तमान में पाकिस्तान) की मिट्टी को छोड़कर भटकते हुए इस हाईवे किनारे आ रुके टकन दास कुकरेजा और उनके बेटे किशन चंद कुकरेजा ने गुलशन ढाबे की शुरुआत की थी. ये बात 50 के दशक की है. दिल्ली से पंजाब, हिमाचल और कश्मीर की तरफ जाने वाले और वहां से आने वाले ट्रक ड्राइवरों के लिए रुकने का पसंदीदा ठिकाना बनी चाय की ये दुकान फिर दाल रोटी बेचने लगी. इसके बाद इसने छोटे मोटे ढाबे की शक्ल अख्तियार कर ली. ढाबा बना तो इसका नाम टकन दास कुकरेजा के बड़े पोते गुलशन के नाम पर रखा गया.
परांठे के साथ बड़ी वैरायटी :
पानी पूरी और जलेबी
स्वर्गीय टकन दास कुकरेजा के छोटे पोते मनोज बताते हैं कि उनके साथ यहाँ के पुराने ढाबों में आहूजा ढाबा और सुनील ढाबा भी हुआ करता था. बहरहाल, इनकी जगह आसपास ही इधर उधर बदलती भी रही. ये ढाबे भी आज यहाँ चल रहे हैं. यहाँ सबसे ज्यादा बदलाव की शुरुआत देखने को मिली 90 के दशक में यानि आज से तकरीबन 25 -30 बरस पहले. पहले यहाँ तवे के ही परांठे मिलते थे लेकिन तंदूरी परांठों का चलन ऐसा चला कि चलता चला गया. जैसे जैसे लोगों की आमद बढ़ती गई वैसे वैसे परांठों की किस्में ही नहीं यहाँ खाने पीने के और सामान की मांग व वैरायटी भी बढ़ने लगी. अब तो हालत ये है कि यहाँ का मेनू (menu) पढ़कर ऑर्डर देने में ही आपको 5 -10 मिनट लग जायें (अगर आपने पहले से तय नही किया हुआ है तो). मुरथल के ढाबों पर तरह तरह के परांठे की ही नहीं नार्थ इन्डियन, साउथ इन्डियन, राजस्थानी, मुगलई, चाइनीज़, इटेलियन की भी वैरायटी खूब मिलती है. देसी घी की जलेबी, रबड़ी, कुल्फी, कचोड़ी, समोसा, तरह तरह की चाट, गोल गप्पे से लेकर आइस क्रीम, केक पेस्ट्री और भी न जाने क्या क्या. ज़ाहिर सी बात है कि जब इतना सब कुछ हो तो चाय, कॉफ़ी, लस्सी, शिकंजी से लेकर मॉकटेल क्यों न हो …!
देशी घी की जलेबी
सोनीपत के मुरथल में ढाबों ने शाकाहारी के साथ साथ मांसाहारियों के लिए खुद को तैयार कर रखा है. मांसाहार की भी भरपूर वैरायटी (non veg dishes) आपको मिलेगी. जो नॉनवेज नहीं खाना चाहते लेकिन वैसा हेल्दी और प्रोटीन वाला खाना टेस्ट करना चाहते हैं उनके लिए यहाँ सोया चाप के काउंटर भी हैं. देसी पन के शौक़ीन लोगों ने जहां मुरथल को लोकप्रिय बनाया वहीं दिल्ली जैसे मेट्रो शहर में निजी गाड़ियों की सहज उपलब्धता ने छोटे छोटे ग्रुपों और परिवारों के लिए ये आउटिंग और पिकनिक जैसी जगह के तौर पर विकसित हो गया. मुरथल आना युवाओं के लिए मस्ती भरा सफर है. कॉर्पोरेट कल्चर के साथ वीकेंड की आउटिंग का क्रेज़ साधारण और मध्यवर्गीय तबके में बढ़ा है. उनको भी मुरथल जैसी जगह मुफीद लगती है जो शहर से बाहर और भीड़ भाड़ से अलग है और ज्यादा दूर भी नहीं है.
गुलशन ढाबा
ढाबे पर दुकानें :
यही नहीं मुरथल में ढाबे वालों ने युवा वर्ग के साथ बच्चों के आकर्षण के लिए भी बंदोबस्त करने शुरू कर दिए. ढाबे के एक हिस्से में ऐसे सामान की दुकान भी खोल दी गई हैं जहां बच्चों के लिए तरह तरह के लकड़ी पत्थर के खिलौनों से लेकर आधुनिक, चमकदार, बत्तियों वाली बन्दूकों से लेकर बैटरी से चलने वाली तरह – तरह की कारों और प्लेन के खिलौने भी मौजूद हैं. देशी विदेशी ब्रांडेड के टॉफी चॉकलेट से लेकर बिस्किट और भी न जाने क्या क्या इन सब दुकानों पर मिलता है. चूरन, आम पापड़ से लेकर खट्टी-मीठी गोलियां, पान सुपारी आदि बहुत कुछ यहाँ है. यही नहीं ऐसी दुकानें भी मुरथल के ढाबों पर मिल जाएंगी जहां घर गृहस्थी सजाने के लिए स्टाइलिश बर्तन, उपकरण, डेकोरेशन के लिए फूल, कांच के गुलदस्ते और शोपीस भी मिलेंगे. साथ ही आप मोबाइल फोन और ऐसे ही इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की एसेसरीज भी खरीद सकते हैं. जितनी देर में आप खायेंगे पियेंगे, उतनी देर में ही आपकी कार की सफाई धुलाई भी हो जाएगी. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि छोटा मोटा बाज़ार बनते जा रहे इन ढाबों पर समय और पैसा खर्च करने के अपार अवसर हैं.
बढ़िया मॉडर्न शो वाले आरामदायक कमरे बनाये गए हैं.
किचन
मुरथल आना युवाओं के लिए मस्ती भरा सफर है. कॉर्पोरेट कल्चर के साथ वीकेंड की आउटिंग का क्रेज़ साधारण और मध्यवर्गीय तबके में बढ़ा है. मुरथल के इन ढाबों का 24 घंटे सातों दिन खुला रहना इस किस्म के ग्राहक को हर वक्त न्योता देता है. पुराने ढाबे बड़े होते गए और साथ ही उनकी लोकप्रियता और आने वालों की ग्राहकों की बढ़ती संख्या को देख यहाँ और ढाबे भी खुलते चले गए. यूं तो दिल्ली-चंडीगढ़ मार्ग पर पर जगह जगह ढाबे मिल जायेंगे लेकिन मुरथल में ही अकेले एकाध किलोमीटर के दायरे में 50 ढाबे तो होंगे ही. ऐसे कितने ही ढाबे यहाँ मिल जाएंगे जो एक बार में 100 -200 ग्राहकों को खाना परोसने की ताकत रखते हैं. इससे ये भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि वहां कितने कर्मचारी काम करते होंगे. खुद मुरथल के गुलशन ढाबे के ही मनोज बताते हैं कि उनके यहाँ 150 कर्मचारी हैं.
गरम धरम भी आया :
गरम धरम ढाबा
गरम धरम ढाबा की चाय
चंड़ीगढ़ – दिल्ली मार्ग पर इन दोनों जगहों के बीच करनाल भी ऐसी एक जगह है जहां इस तरह के ढाबे बड़ी तादाद में मिल जाते हैं. लेकिन मुरथल के ढाबों की लोकप्रियता, वहां होने वाली सेल और उसकी बढ़ती सम्भावनाओं का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारतीय फिल्म इंडस्ट्री या यूं कहें कि बॉलीवुड के ‘ही मैन’ ( He Man of bollywood ) कहलाने वाले एक ज़माने के स्टार धर्मेन्द्र ने भी यहीं पर अपने थीम के पहले ढाबे का उद्घाटन किया. धर्मेंद्र के गुस्सैल और गर्म हीरो वाले किरदार को उभारते ‘गरम धरम ‘ नाम के इस ढाबे ने तो हद ही कर डाली. शोले फिल्म के पोस्टरों से लेकर मोटर साइकिल और रेट्रो माहौल को बनाती साज सज्जा वाले इस जगह को ढाबा नहीं ऐसा पंडाल कहना ज्यादा बेहतर होगा जो आजकल के धनाढ्य वर्ग या उनसा दिखने वाले वर्ग के लोगों की शादी ब्याह के लिए तैयार किया जाता है. वजह ये है कि यहाँ पर 1200 लोगों को एक साथ खाना खिलाने की क्षमता होने का दावा किया जाता है. इसी तरह धर्मेन्द्र का गरम धरम ढाबा तो कोविड 19 महामारी के उस दौर में भी गाज़ियाबाद में खुला जबकि खाने पीने से जुड़े रोज़गार पर संकट छाया हुआ था और होटल, ढाबों, कैफ़े जैसे कई ठिकाने बंद हो रहे थे. वैसे दिल्ली से धर्मेंद्र के पैतृक गांव साहनेवाल (लुधियाना) जाने का रास्ता भी यहीं से है.
परांठे का ऑर्डर कैसे करें :
पराठे की एक कैटेगिरी
चंड़ीगढ़ – दिल्ली राजमार्ग पर, खासतौर से मुरथल के ढाबों में परांठों को बनाने और परोसने का तरीका तकरीबन एक जैसा ही है. परांठे सबकी थाली में वैसे ही आते हैं. .. सफेद मक्खन, दही, अचार के साथ. गुलशन ढाबे पर अचार की तीन वैरायटी के साथ सिरके वाला प्याज़ भी दिया जाता है. यहाँ सबसे ज्यादा आलू प्याज़ के परांठे की मांग होती है. अगर आप अकेले हैं और यहाँ पहली बार खा रहे हैं तो एक ही परांठे का आर्डर करें क्यूंकि ये बड़े साइज़ का भरवां परांठा होता है जिसकी अभी यहाँ पर कीमत 70 रूपये है. अगर ज्यादा भूख हो तभी एक साथ दो परांठों का आर्डर करें अथवा पहले वाला परांठा थोडा खाने के बाद दूसरे का आर्डर करें. सर्विस यहाँ तेज़ होती है. आपका पहले वाला परांठा खत्म होने तक दूसरा आ जाएगा. उसके साथ और मक्खन मिलेगा. ऐसे में हाँ, एक बात का ख्याल रखियेगा, यहाँ पर दही की कीमत आपके बिल में अलग से लगेगी. आमतौर पर ये बात आर्डर लेते वक्त ढाबों के कर्मचारी की तरफ से नहीं बताई जाती. यहाँ पीने का साधारण पानी अच्छा होता है लेकिन ज्यादा मुनाफे के चक्कर में आपके टेबल पर आते ही वेटर बोतलबंद पानी देगा. मुनाफा ग्रीन सलाद में भी ख़ासा होता है इसलिए ढाबे वालों की कोशिश होती है कि ग्रीन सलाद की प्लेट भी आपके खाने में जोड़ दें. जहां तक परांठे की कीमत की बात है तो वो इसके किस्म पर निर्भर करती है. मतलब उसमें की जाने वाली स्टफिंग पर. आमतौर पर 50 -60 रुपये से लेकर ये परांठा 100 के आसपास तक की कीमत का हो जाता है.
ढाबे पर पार्टी :
गुलशन ढाबा
इन ढाबों में पिछले कुछ साल में एक और ट्रेंड शुरू हो चुका है. छोटे गुटों में ही नही यहाँ अब बर्थ डे पार्टी या अन्य दावतें भी होने लगीं हैं. ढाबे वालों ने अपने यहाँ पार्टी हॉल भी बना डाले. और अब तो ढाबों में रहने के लिए कमरे भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं. मुरथल जिस सोनीपत ज़िले में हैं वहाँ औद्योगिक क्षेत्र भी है. यहाँ कई बड़ी इंडस्ट्रीज भी हैं. इनमें मीटिंग्स आदि के लिए या थोड़े समय के लिए आने वाले लोगों के लिए ये कमरे मुफीद बैठते हैं. खुद एक कच्चे से कमरे से शुरू हुआ गुलशन होटल भी इस ट्रेंड में कूद पड़ा है. यहाँ बढ़िया मॉडर्न शो वाले 23 आरामदायक कमरे बनाये गए हैं. अलग अलग कैटेगरी के इन कमरों का एक दिन का किराया 2500 से लेकर 4500 रुपये तक है.
छोले भटूरे
विदेश का असर :
दिल्ली – चंडीगढ़ मार्ग के ढाबे आधुनिकता की दौड़ में पूरी रेस लगाते दिखाई दे रहे है जो इनके चमचमाते वाशरूम में लगी आधुनिक फिटिंग्स और असेसरीज़ से भी दिखाई देती है. यूँ तो कुछ ने पहले से ही यहाँ कांटेक्ट लेस टोंटियां आदि लगाई थीं लेकिन कोविड 19 महामारी के हालात के बाद इनका ट्रेंड भी बढ़ा है. यहाँ काम करने वाले कर्मचारियों की यूनीफार्म भी स्टाइलिश और पश्चिम देशों के सर्वर्स से प्रभावित दिखाई देती है लेकिन उनकी बॉडी लेंगुएज (body language) और बातचीत का सलीका यहाँ की चमचमाहट और पश्चिम प्रभावित स्टाइल से मेल नहीं खाता. सर्विंग के मामले में और हाइजीन के मामले में भी ये उस नजरिये से पूरी तरह खरे नहीं उतरते. ढाबों में विदेशी तर्ज़ पर कुछ बन्दोबस्त करने के पीछे असल में एक बडा कारण है दिल्ली – चंडीगढ़ मार्ग से बड़ी तादाद में एनआरआई और विदेशी टूरिस्टों का आना. ठीक ठाक पैसे लेकर आने वाले ये ग्राहक इन ढाबों पर रुकना पसंद करते हैं और वैसे भी उनके पास कोई और विकल्प नहीं होता था. पंजाब के दूरदराज़ इलाकों से विदेश जाने के लिए उन्हें दिल्ली से फ्लाइट्स लेनी होती है. ऐसे में आमतौर पर 7 -8 घंटे की रोड ट्रेवलिंग (road travelling ) में उनको दो तीन ब्रेक तो लेने पड़ते ही हैं जिनमें से एक ब्रेक अक्सर मुरथल होता है. देर शाम या रात में आने जाने वाली इन इंटरनेशनल फ्लाइट से सफर करने वाले लोगों को दिल्ली एयरपोर्ट पर विदा करने तक साथ जाने या आने पर हवाई अड्डे पर स्वागत करके साथ के लिए परिवार और दोस्तों के होने का ट्रेंड जारी है. ऐसे छोटे छोटे ग्रुप भी दिल्ली से लेकर चंडीगढ़ मार्ग के इन ढाबों पर मिल जाते है. देश विदेश आने जाने वाले ऐसे ग्राहक भी मुरथल के ढाबों में खाने पीने के सामान की बढ़ती वैरायटी और बदलते ट्रेंड की एक बड़ी वजह हैं.
गुलशन ढाबा के मालिक मनोज (बाएं)के साथ thereporteryatra.com के लेखक
मुख्य तौर पर मीलों के सफर पर निकले ट्रक ड्राइवरों और क्लीनरों की ज़रूरत पूरा करने के लिए सड़कों के किनारे खुले ढाबे के कल्चर के एक हिस्से पर अनुभव के आधार पर लिखी ये रिपोर्ट उम्मीद है आपको पसंद आएगी और इस रूट पर यात्रा के बारे में जानकारी बढ़ाएगी. पसंद आई हो तो इसके लिंक को शेयर ज़रूर करें. आपका ये कदम www.thereporteryatra.com टीम का हौसला बढ़ाएगा.
by Sanjay Vohra | Sep 19, 2021 | Destination, Editor's Pick
अंग्रेज़ी हुकूमत से मिली आज़ादी के बाद आधुनिक भारत में व्यवस्थित तरीके से बनाये और बसाये गए चंडीगढ़ शहर के नये आकर्षणों में से एक है जापानी पार्क. चंडीगढ़ नगर निगम का बनाया ये खूबसूरत पार्क जापानी संस्कृति के उन पहलुओं को समेटे हुए है जो प्रकृति प्रेम, शांति और अध्यात्म के गुणों से लबरेज़ हैं. इस थीम पार्क की खासियत है कि यहाँ कुछ ऐसे पेड़ पौधे भी उगाये गये हैं जो आम तौर पर उत्तर भारत के मैदानी इलाकों में नहीं दिखाई देते. रुद्राक्ष के पेड़ और चीड़ के पेड़ (pine tree) तो यहाँ एक कोने में सुन्दर झुरमुट के तौर पर दिखाई देते हैं वहीं जापानी पार्क में बांस के पेड़ों (bamboo tree) की संख्या अच्छी खासी है. अलग अलग साइज़ के बैम्बू ट्री यहाँ जगह जगह देखने को मिलते हैं. जापानी पार्क में बांस के पेड़ों की दो किस्में हैं – गोल्डन बैम्बू (golden bamboo) और ब्लैक बैम्बू (black bamboo).
जापानी पार्क में पैगोडा
चंडीगढ़ के सेक्टर 31 और 32 के बीच के खाली पड़े क्षेत्र को जापानी पार्क के तौर पर विकसित करके यहाँ तकरीबन 30 -35 किस्म के पेड़ पौधे लगाये गए हैं जिनमें चांदनी, कनेर, फाईकस, पाल्म आदि के विभिन्न प्रजातियां के हैं. यहाँ लगाये गये रुद्राक्ष के पेड़ों पर तीन मुखी और चार मुखी फल लगते हैं. हरे भरे जापानी पार्क में जगह जगह अलग अलग आकार की बना कर रखी गई कलाकृतियां जापानी रहन सहन के प्रति जिज्ञासा पैदा करती हैं. इन कलाकृतियों में ज्यादातर गोलाई में बनी हुई हैं जैसा कि आमतौर पर जापानी डिजाइन पाए जाते है. नुकीले या किनारे वाले नहीं.
चंडीगढ का जापानी पार्क
जापानी पार्क में आने वालों को यहाँ जगह जगह महात्मा बुद्ध की प्रतिमाएं दिखेंगी जो अलग अलग रंगों और आकार की तो हैं ही अलग अलग किस्म की सामग्री से भी बनाई गई हैं. हरी हरी नर्म और सुन्दर करीने से कटी घास वाले लैंड स्केप पार्क की सुन्दरता में चार चाँद लगाते हैं. कई जगह पर पार्क में पेड़ पौधों की छंटाई करके उनको सुन्दर आकृति दी गई है. पार्क में तीन जगहों पर नहर की शक्ल में जलाशय बनाये गये जिनमें टैंक से पानी भरे जाने की व्यवस्था की गई है. स्थानीय लोग इनको झील भी कहते हैं. इनके किनारे पर मगरमच्छ, मछली और कछुए जैसे जलीय जीवों की कलाकृतियां भी सजाई गई हैं. बच्चों के लिए ये ख़ास आकर्षण पैदा करती हैं.
चंडीगढ का जापानी पार्क
पार्क के प्रवेश द्वार से लेकर अलग अलग हिस्सों की एंट्री वाली जगह में जापानी वास्तु शैली से बने गेट है. बौद्ध संस्कृति की छाप यहाँ बने पैगोडा से भी दिखाई देती है. इसी तरह जापानी पार्क के एक छोर पर मेडिटेशन हट (meditation hut) भी बनाई गई है जहां ध्यान लगाया जा सकता है. गोल आकार की इस मेडिटेशन हट की बनावट में ख्याल रखा गया है कि इसमें बैठकर ध्यान लगाने वालों को बाहर की गतिविधियाँ रुकावट न डालें. इसके सब तरफ छोटे छोटे झरोखे बनाये गये है जिससे हल्की हल्की हवा और रोशनी भीतर आती रहे. पार्क में पैगोड़ा (pagoda) भी बने हैं जो स्तूप के आकार से प्रभावित हैं.
चंडीगढ का जापानी पार्क
जापानी पार्क में अन्य तरह के पारम्परिक झूलों के साथ यहां ड्रेगन के आकार का भी झूला है जो बच्चों को ही नहीं हर उम्र के शख्स को आकर्षित करता है. यहाँ घूमने आने वालों को इस जगह पर फोटो खिंचवाना बहुत पसंद आता है. यूं तो यहाँ खूबसूरत फ्रेम के साथ फोटो खिंचवाने के काफी मौके हैं वहीं पर्याप्त स्थान, आकार और प्राकृतिक सौन्दर्य सेल्फी प्रेमियों को भी तरह तरह के एंगल से अपनी तस्वीर खींचने के मौके देता है. जापानी लिबास पहने छतरी लिए महिला की वीडियोग्राफी करते शख्स के दृश्य वाली कलाकृति भी लोगों के चेहरे पर मुस्कराहट ले आती है.
चंडीगढ का जापानी पार्क
चंडीगढ़ के जापानी पार्क के अलग अलग हिस्सों को जोड़ने के लिए सुरंगनुमा रास्ता बनाया गया है जिसके दोनों तरफ दीवार पर जापानी संस्कृति और चित्रकला को दर्शाती पेंटिंग्स बनाई गई हैं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि शांत वातावरण में शहर के बीच प्राकृतिक सौदर्य का बोध करते हुए यदि चंडीगढ़ में कुछ वक्त बिताना हो तो यहाँ आया जा सकता है. जिज्ञासु प्रवृत्ति के लोगों को यहाँ और समय बिताने के अवसर मिल सकते हैं.
यहाँ यहीं पर खाने पीने का सामान बेचने के लिए कैंटीन नुमा फ़ूड स्टाल कोर्ट बने है जहां स्नैक्स मिलते थे लेकिन कोविड महामारी के दौर में ये बंद हो गये. अस्थाई व्यवस्था के तौर पर यहाँ कोल्ड ड्रिंक्स, पानी और भेल पूरी चाट आदि जैसी खाने पीने की चीज़ें बेचने के लिए दो तीन ठिकाने बनाये गये हैं. जापानी पार्क सुबह से लेकर रात तक खुला रहता है. यहाँ एंट्री के लिए कोई टिकट नहीं है और न ही वाहन पार्क करने का कोई शुल्क है.
चंडीगढ का जापानी पार्क
पार्क का पहला हिस्सा बनाने में 4 साल लगे थे जो 2014 में बनकर तैयार हो गया था और इसका दूसरा हिस्सा 2017 में तैयार हुआ. अच्छा और उतार चढ़ाव वाला वाकिंग ट्रैक होने के कारण ये जगह पैदल सैर करने वालों के लिए बहुत अच्छी है. सुबह और शाम को आसपास के लोगों की यहाँ आमद होती है लेकिन अभी भी ये स्थान चंडीगढ़ में लोकप्रिय नहीं है. केंद्र शासित क्षेत्र चंडीगढ़ के दक्षिण हिस्से मंा बने जापानी पार्क को बनाया तो नगर निगम ने है लेकिन इसमें काफी लागत खर्च केंद्र सरकार के पर्यटन मंत्रालय ने उठाया था. आसपास के लोग यहाँ आते हैं. गर्मियों के मौसम में सुबह और सर्दियों में दोपहर को यहाँ आना सबसे सही समय है. तकरीबन दर्जन भर से ज्यादा माली यहाँ के पेड़ पौधों की देखभाल करते है.
चंडीगढ का जापानी पार्क
संभवत: कोविड महामारी के प्रकोप के बीच या किसी अन्य कारणों से जापानी पार्क की सिविल मेंटेनेंस प्रभावित हुई है. यहाँ कई जगह पर कलाकृतियों को फिर से रंग करने या मरम्मत करने की ज़रुरत है. यहाँ कुछेक को छोड़कर ज़्यादातर कलाकृतियों और पेड़ पौधों की विशेषता का ब्यौरा देने के लिए शिलालेख या ऐसा कोई और तरीका नहीं अपनाया गया है जो उसके बारे में ज्ञान बढ़ाता हो. कई जगह पर रोशनी के लिए पॉइंट्स हैं लेकिन वहां से बल्ब गायब हैं. कुछेक जगह पर दीवारों को लोगों ने पत्थर, चाक, रंग या पेन आदि से लिखकर भद्दा कर रखा है. यहाँ के जलाशय में पानी भी हर समय नहीं रहता. इनमें पानी का रिसाव एक समस्या बना हुआ है. पर्यटन या सैर के इरादे से चंडीगढ़ में घूमने फिरने या ऐसे अन्य महत्वपूर्ण स्थलों के रख रखाव के मुकाबले जापानी पार्क पर प्रशासन की से कमी दिखाई देती है.
by Sanjay Vohra | Sep 4, 2021 | Heritage, Religious
श्रीनगर से पहले जम्मू कश्मीर की प्राचीन राजधानी रहे अवंतिपुर का विष्णु मन्दिर बेशक खंडहर में तब्दील हो चुका है लेकिन ये खूबसूरत कश्मीर के इतिहास को अपनी नज़रों से देखने और महसूस करने की एक अच्छी और पैनी समझ पैदा कर सकता है. जो लोग भी कश्मीर घूमने जाना चाहते हैं या उसके बदले हालात के बारे में जानने और समझने के जिज्ञासु हैं उनको अवंतिपुर के सदियों पुराने इस मंदिर के अवशेष भी बहुत मदद कर सकते हैं. अवंतिपुर विष्णु मन्दिर के अवशेष भारत की आज़ादी से पहले एक विदेशी पुरातत्व विशेषज्ञ ने खुदाई करवाकर निकलवाए थे. झेलम नदी के दक्षिण दिशा में तट पर बसे अवंतिपुर का ये मन्दिर शायद किसी ज़माने में भूकंप या बाढ़ जैसी आपदा की चपेट में आकर ज़मीन में दब गया होगा. वैसे भगवान विष्णु के इस मंदिर को अवन्ति स्वामी मंदिर भी कहा जाता है.
अवन्तिवर्मन का विष्णु मन्दिर
कश्मीर घाटी के इस मन्दिर के बारे में विस्तार से जानने से पहले इस स्थान के बारे में जानना ज़रूरी हैं जिसे कई नाम से पुकारा जाता है – अवंतीपुर , अवन्तिपुर , अवंतीपोरा और कश्मीरी में वून्तपोर (Woontpor) भी कहा जाता है. आमतौर पर ठंडी रहने वाली कश्मीर घाटी का ये इलाका समुद्र तल से 1582 मीटर की ऊंचाई पर है. ये एक छोटा सा गाँव या कस्बा कहा जा सकता है हालांकि सरकारी राजस्व रिकार्ड में अवंतीपोरा एक तहसील भी है . राष्ट्रीय राजमार्ग 44 पर स्थित अवंतिपुरा की आबादी ( 2011 की भारत की जनगणना के मुताबिक़) 6 हज़ार के आसपास है.
राजा अवन्तिवर्मन ने बनवाया :
उत्पल वंश के राजा अवन्तिवर्मन 855 ईस्वी में कश्मीर के राज सिंहासन पर जब बैठे तब लम्बे समय से चले आ रहे अंदरूनी युद्धों के कारण राज्य की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल थी. उस दौरान राजा अवन्तिवर्मन ने झेलम नदी के किनारे अवन्तिपुर को बसाकर इसे कश्मीर की राजधानी बनाया. अवंतिपुर को कश्मीर की राजधानी बनाने और यहाँ के निर्माण कार्य की मुख्य ज़िम्मेदारी उन्होंने अपने प्रधानमंत्री सूर्या को सौंपी जोकि एक इंजीनियर और आर्किटेक्ट थे. कहते हैं कि सूर्या ने झेलम नदी से गाद निकलवाकर उसका रास्ता तक बदला था. अवन्तिवर्मन खुद तो कलाप्रेमी थे ही , कलाकारों और शोधकर्ताओं को भी बेहद सम्मान देते थे.
अवन्तिवर्मन के विष्णु मन्दिर का डिटेल
राजा अवन्तिवर्मन ने कश्मीर में कई मंदिरों और बौद्ध मठों का निर्माण कराया. अवन्तिपुर को मुख्यत: दो मंदिरों की वजह से पहचाना जाता था. एक तो, सृष्टि के पालनहार माने जाने वाले भगवान विष्णु को समर्पित अवन्ति स्वामी मन्दिर और दूसरा विनाश से सम्बद्ध माने जाने वाले भगवान शिव को समर्पित शिवेश्वर मन्दिर. भगवान शिव का ये मन्दिर अवन्ति स्वामी मन्दिर से एक किलोमीटर के फासले पर ही है लेकिन ये दोनों मन्दिर अलग अलग समय में बनाये गये थे. वैसे अवन्तिस्वामी मन्दिर को अवन्तिश्वर मन्दिर भी कहा जाता है. अवन्तिश्वर और शिवेश्वर , दोनों ही मंदिरों की वास्तुशैली यूनानी वास्तु जैसी दिखाई देती है.
आठवीं शताब्दी का होने के बावजूद अवन्तिपुर मंदिर के खंडहर अब भी आकर्षक लगते हैं. हाइवे से धीमी रफ़्तार से गुजरने पर ही ये मंदिर दिखाई दे जाता है. मन्दिर की पृष्ठभूमि में पर्वत श्रृंखला इसे और आकर्षक स्थान बनाती है जो खूबसूरत फोटो लेने के लिए यहाँ आने वाले पर्यटकों की पहली पसंद होती है. हालांकि आबादी से फासले पर एकांत वाला इलाका होने और ज़्यादा भीड़ भाड़ न होने के कारण यहाँ नौजवान जोड़े भी आना पसंद करते हैं. सेल्फी के शौक़ीन नौजवान नस्ल को भी यहाँ अपने पसंद के अलग अलग फ्रेम मिलते हैं.
अवन्तिवर्मन का विष्णु मन्दिर
खुदाई में मिला मन्दिर :
ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रमुख रहे जॉन मार्शल और उनके बाद पुरातत्त्व विभाग (Archeological Survey of India ) के पहले भारतीय महानिदेशक बने दया राम साहनी (Daya Ram Sahni ) की देखरेख में कश्मीर में हुई खुदाई के दौरान के इन मंदिरों के खंडहर मिले. अवंतिस्वामी मंदिर के खंडहरों से पता चलता है कि ये मन्दिर एक विशाल बरामदे की तरह से बनाया गया था. इन बरामदों में तीन तरफ कमरे बने हुए थे. अवंतिपुर मंदिर पंचायतन मंदिर है जो स्तम्भावली पर आधारित आयताकार प्रांगण के बीचों बीच है. गर्भ गृह , चार छोटे देवायतन , खम्भों वाला मंडप और मुख्य प्रवेश द्वार इसके प्रमुख हिस्से हैं. आंगन में बीचोंबीच ऊँचे स्थान पर यहाँ शायद गरुड़ ध्वज स्थापित रहा होगा. अवंतिपुर का विष्णु मंदिर ( 855 – 83 ईस्वी ) के दौर के वास्तुशिल्प और स्थापत्य कला के मिश्रण का सुन्दर नमूना है. समान अनुपात के निर्माण , पत्थर को काटकर उस पर बारीकी से उकेरी कृतियाँ और अवस्थित मूर्तियां मनोहारी हैं.
अवन्तिवर्मन का विष्णु मन्दिर
मुख्य मन्दिर दो स्तर वाले चबूतरे पर बना हुआ है जिन तक आंगन में बनी सीढ़ियों के जरिये पहुंचा जा सकता है. मुख्य द्वार के दोनों तरफ दीवारों पर उभरी हुई आकृतियाँ हैं. गर्भगृह के सोपान मार्ग के लघु भित्तियों पर कामदेव , राजा अवन्तिवर्मन , उनकी रानी और सभासदों की आकृतियां बनी हुई हैं. यहाँ लगभग सभी लघु कक्षों के द्वारमुख त्रिवलकार हैं.
मन्दिर को क्षति :
भक्ति और कला की सुंदर कृति अवंतिस्वामी मन्दिर के इतिहास के बारे के बात और कही जाती है जो बताती है कि प्रकृति की उस आपदा से पहले इस मन्दिर को इंसानी नफरत का दंश झेलना पड़ा. वो तब की बात है जब सिकंदर की सेनाएं यहाँ पहुंचीं थी . उस दौरान दीवारों पर उकेरी गई देवी देवताओं के चेहरों और अंगों को तोड़कर विकृत करने या उनकी पहचान नष्ट करने की कोशिश की गई. वैसे पुरातात्विक महत्व होने की वजह से अब इसकी देखरेख , सुरक्षा और मरम्मत आदि की ज़िम्मेदारी पुरातत्व विभाग के पास है.
अवन्तिवर्मन का विष्णु मन्दिर
ऐसे पहुंचे मंदिर :
अवंती स्वामी मंदिर क्योंकि राजमार्ग पर ही है और घनी आबादी से काफी दूर है , इसलिए यहाँ पहुंचने में कोई झंझट नहीं है. संरक्षित स्थान होने के कारण यहाँ नित्य पूजा पाठ आदि जैसी गतिविधियां नहीं होती. अवंतीपोरा के इस विष्णु मंदिर में प्रवेश के लिए पुरातत्व विभाग ने फीस रखी हुई है. प्रत्येक आगन्तुक को मंदिर में जाने के लिए एंट्री टिकट (entry ticket ) लेनी होती है जो कि 25 रूपये प्रति व्यक्ति प्रति एंट्री है. यदि आप निजी वाहन से जा रहे हैं तो वाहन मंदिर के बाहर ही पार्क किया जा सकता है. यहाँ कोई पेड पार्किंग (paid parking ) जैसी व्यवस्था नहीं है.